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पोस्ट्स

सप्टेंबर, २०१५ पासूनच्या पोेस्ट दाखवत आहे

या व्याकुळ संध्यासमयीं

या व्याकुळ संध्यासमयीं शब्दांचा जीव वितळतो . डोळ्यांत कुणाच्या क्षितिजें मी अपुले हात उजळतो . तू आठवणींतुन माझ्या कधिं रंगित वाट पसरशी , अंधार - व्रताची समई कधिं असते माझ्यापाशीं ..... पदराला बांधुन स्वप्नें तू एकट संध्यासमयीं , तुकयाच्या हातांमधला मी अभंग उचलुन घेई ..... तू मला कुशीला घ्यावें अंधार हळू ढवळावा ..... संन्यस्त सुखाच्या काठीं वळिवाचा पाऊस यावा !

दुनिया के सितम याद, न अपनी ही वफ़ा याद

दुनिया के सितम याद, न अपनी ही वफ़ा याद अब मुझको नहीं कुछ भी, मोहब्बत के सिवा याद

एक रात आपने उम्मीद पे क्या रखा है

एक रात आपने उम्मीद पे क्या रखा है आज तक हमने चराग़ों को जला रखा है

याद रखना ही मोहब्बत में नहीं है सब कुछ

याद रखना ही मोहब्बत में नहीं है सब कुछ भूल जाना भी बड़ी बात हुआ करती है

ये वफ़ा की सख़्त राहें, ये तुम्हारे पाँव नाज़ुक

ये वफ़ा की सख़्त राहें, ये तुम्हारे पाँव नाज़ुक न लो इंतिक़ाम मुझसे मेरे साथ-साथ चल के

वो अफ़्साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन

वो अफ़्साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन उसे एक ख़ूब-सूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा

हम से पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या

हम से पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए

अपना ज़माना आप बनाते हैं अहल-ए-दिल

अपना ज़माना आप बनाते हैं अहल-ए-दिल हम वो नहीं कि जिनको ज़माना बना गया

उसकी याद आई है साँसो ज़रा आहिस्ता चलो

उसकी याद आई है साँसो ज़रा आहिस्ता चलो धड़कनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है

मोहब्बत एक ख़ुशबू है हमेशा साथ चलती है

मोहब्बत एक ख़ुशबू है हमेशा साथ चलती है कोई इंसान तन्हाई में भी तन्हा नहीं रहता

ज़िंदगी तुझसे हर एक साँस पे समझौता करूँ

ज़िंदगी तुझसे हर एक साँस पे समझौता करूँ शौक़ जीने का है मुझको मगर इतना भी नहीं

वादा किया था फिर भी न आये मज़ार पर,

वादा किया था फिर भी न आये मज़ार पर, हमने तो जान दी थी इसी एतबार पर !!

रिश्तों का एतिबार, वफ़ाओं का इंतिज़ार

रिश्तों का एतिबार, वफ़ाओं का इंतिज़ार हम भी चराग़ ले के हवाओं में आए हैं

एक दिन दोनों ने अपनी हार मानी एक साथ

एक दिन दोनों ने अपनी हार मानी एक साथ एक दिन जिस से झगड़ते थे उसी के हो गए

जो रुक गयी वो बात फिर आगे न बढ़ सकी,

जो रुक गयी वो बात फिर आगे न बढ़ सकी, उसकी हंसी को सुनता रहा साँस रोक के.

कुछ बिखरी हुई यादों के क़िस्से भी बहुत थे

कुछ बिखरी हुई यादों के क़िस्से भी बहुत थे कुछ उस ने भी बालों को खुला छोड़ दिया था

बढ़ते चले गए जो वो मंज़िल को पा गए

बढ़ते चले गए जो वो मंज़िल को पा गए मैं पत्थरों से पाँव बचाने में रह गया

और होंगे तिरी महफ़िल से उभरने वाले

और होंगे तिरी महफ़िल से उभरने वाले हज़रत-ए-'दाग़' जहाँ बैठ गए बैठ गए

ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिस में

ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिस में हर घड़ी दर्द के पैवंद लगे जाते हैं

जब कश्ती साबित-ओ-सालिम थी साहिल की तमन्ना किस को थी

जब कश्ती साबित-ओ-सालिम थी साहिल की तमन्ना किस को थी अब ऐसी शिकस्ता कश्ती पर साहिल की तमन्ना कौन करे

क्या जानें सफ़र ख़ैर से गुज़रे कि न गुज़रे

क्या जानें सफ़र ख़ैर से गुज़रे कि न गुज़रे तुम घर का पता भी मेरे सामान में रखना

यूँ सर-ए-राह मुलाक़ात हुई है अक्सर

यूँ सर-ए-राह मुलाक़ात हुई है अक्सर उसने देखा भी नहीं, हमने पुकारा भी नहीं

अब हम भी सोचते हैं कि बाज़ार गर्म है

अब हम भी सोचते हैं कि बाज़ार गर्म है अपना ज़मीर बेच के दुनिया ख़रीद लें

दिल से तो हर मुआमला करके चले थे साफ हम

दिल से तो हर मुआमला करके चले थे साफ हम कहने मे उनके सामने बात बदल बदल गई

एक बार ही जी भर के सज़ा क्यूँ नहीं देते ?

एक बार ही जी भर के सज़ा क्यूँ नहीं देते ? मैं हर्फ़-ए-ग़लत हूँ तो मिटा क्यूँ नहीं देते ?

तस्वीर-ए-ज़िंदगी में नया रंग भर गए

तस्वीर-ए-ज़िंदगी में नया रंग भर गए वो हादसे जो दिल पे हमारे गुज़र गए

तू एक क़दम भी जो मेरी तरफ़ बढ़ा देता

तू एक क़दम भी जो मेरी तरफ़ बढ़ा देता मैं मंज़िलें तेरी दहलीज़ से मिला देता

उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में

उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते

दोस्तों को भी मिले दर्द की दौलत या रब

दोस्तों को भी मिले दर्द की दौलत या रब मेरा अपना ही भला हो मुझे मंज़ूर नहीं

जुदाईयाँ तो मुक़द्दर है फिर भी जान-ए-सफ़र

जुदाईयाँ तो मुक़द्दर है फिर भी जान-ए-सफ़र कुछ और दुर ज़रा साथ चल के देखते है

किसी बेवफा की खातिर ये जुनूँ फ़राज़ कब तक

किसी बेवफा की खातिर ये जुनूँ फ़राज़ कब तक जो तुम्हें भुला चुका है उसे तुम भी भूल जाओ

और 'फ़राज़' चाहिएँ कितनी मोहब्बतें तुझे

और 'फ़राज़' चाहिएँ कितनी मोहब्बतें तुझे माओं ने तेरे नाम पर बच्चों का नाम रख दिया

जरा सी गर्द_ए_हवस दिल पर लाजमी है फराज,

जरा सी गर्द_ए_हवस दिल पर लाजमी है फराज, वो इश्क़ ही क्या जो दामन को पाक चाहता हो

ये ख्वाब है खुश्बू है के झोंका है के पल है,

ये ख्वाब है खुश्बू है के झोंका है के पल है, ये धुंध है बादल है के साया है के तुम

कितना आसाँ था तेरे हिज्र में मरना जाना

कितना आसाँ था तेरे हिज्र में मरना जाना फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते-जाते

ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती ..

ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती .. ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों मे मिलें

तुम तक़ल्लुफ़ को भी इखलास समझते हो 'फ़राज़'

तुम तक़ल्लुफ़ को भी इखलास समझते हो 'फ़राज़'  दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला !!

मिट्टी की आवाज़ सुनी जब मिट्टी ने

मिट्टी की आवाज़ सुनी जब मिट्टी ने साँसों की सब खींचा-तानी ख़त्म हुई

यार भी राह की दीवार समझते हैं मुझे

यार भी राह की दीवार समझते हैं मुझे मैं समझता था मेरे यार समझते हैं मुझे

ये खुले खुले से गेसू इन्हें लाख तू सँवारे

ये खुले खुले से गेसू इन्हें लाख तू सँवारे मेरे हाथ से सँवरते तो कुछ और बात होती

वो आइने में देख रहे थे बहार-ए-हुस्न

वो आइने में देख रहे थे बहार-ए-हुस्न आया मेरा ख़याल तो शर्मा के रह गये

अगर किसी से जुदा होना इतना आसान होता फ़राज़ ,

अगर किसी से जुदा होना इतना आसान होता फ़राज़ ,  तो जिस्म से रूह को लेने फ़रिश्ते नहीं आते।।

इससे बढ़ कर कोई इनआम-ए-हुनर क्या है 'फ़राज़'

इससे बढ़ कर कोई इनआम-ए-हुनर क्या है 'फ़राज़' अपने ही अहद में एक शख़्स फ़साना बन जाए

दिल भी पागल है कि उस शख़्स से वाबस्ता है

दिल भी पागल है कि उस शख़्स से वाबस्ता है जो किसी और का होने दे न अपना रक्खे

अब याद नहीं मुझको 'फ़राज़' अपना भी पैकर

अब याद नहीं मुझको 'फ़राज़' अपना भी पैकर जिस रोज़ से बिखरा हूँ सिमटकर नहीं देखा

टूटा तो हूँ मगर अभी बिखरा नहीं 'फ़राज़'

टूटा तो हूँ मगर अभी बिखरा नहीं 'फ़राज़' मेरे बदन पे जैसे शिकस्तों का जाल हो

दिल को तेरी चाहत पे भरोसा भी बहुत है

दिल को तेरी चाहत पे भरोसा भी बहुत है और तुझसे बिछड़ जाने का डर भी नहीं जाता

हुआ है तुझसे बिछड़ने के बाद ये मालूम

हुआ है तुझसे बिछड़ने के बाद ये मालूम कि तू नहीं था, तेरे साथ एक दुनिया थी

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं ये बात है तो चलो बात करके देखते हैं

गर बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है, जो चाहो लगा दो डर कैसा

गर बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है, जो चाहो लगा दो डर कैसा गर जीत गए तो क्या कहना, हारे भी तो बाज़ी मात नहीं

सामने उम्र पड़ी है शब-ए-तन्हाई की

सामने उम्र पड़ी है शब-ए-तन्हाई की वो मुझे छोड़ गया शाम से पहले पहले

अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएँ हम

अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएँ हम ये भी बहुत है तुझको अगर भूल जाएँ हम

यह लोंग कैसे मगर दुश्मनी निभाते हैं,

यह लोंग कैसे मगर दुश्मनी निभाते हैं, हमें तो रास ना आईं मोहब्बतें करनी।

चारागर यूँ तो बहुत हैं मगर ए जाने फ़राज़

चारागर यूँ तो बहुत हैं मगर ए जाने फ़राज़ जुज़ तेरे और कोई ज़ख्म न जाने मेरे

तड़प उठूँ भी तो ज़ालिम तेरी दुहाई न दूँ

तड़प उठूँ भी तो ज़ालिम तेरी दुहाई न दूँ  मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ फिर भी तुझे दिखाई न दूँ 

जो ज़हर पी चुका हूँ तुम्हीं ने मुझे दिया

जो ज़हर पी चुका हूँ तुम्हीं ने मुझे दिया अब तुम तो ज़िंदगी की दुआएँ मुझे न दो

लो फिर तेरे लबों पे उसी बेवफ़ा का ज़िक्र

लो फिर तेरे लबों पे उसी बेवफ़ा का ज़िक्र  अहद "फ़राज़" तुझसे कहा ना बहुत हुआ..!

कुछ तो फ़राज़ अपने किस्से भी ऐसे थे,

कुछ तो फ़राज़ अपने किस्से भी ऐसे थे, और कुछ कहने वालों ने भी रंग भरा है

जो हमसफर सर-ए-मंज़िल बिछड़ रहा है फ़राज़,

जो हमसफर सर-ए-मंज़िल बिछड़ रहा है फ़राज़, अजब नहीं की अगर याद भी ना आऊँ

इक दर्द का फैला हुआ सहारा है के मैं हूँ,

इक दर्द का फैला हुआ सहारा है के मैं हूँ, इक मौज में आया हुआ दरिया है के तुम हो

बहुत अजीब है ये बंदिशें मुहब्बत की 'फ़राज़'

बहुत अजीब है ये बंदिशें मुहब्बत की 'फ़राज़' न उसने क़ैद में रखा न हम फरार हुए...

ज़िंदगी अब इस क़दर सफ़्फ़ाक हो जाएगी क्या

ज़िंदगी अब इस क़दर सफ़्फ़ाक हो जाएगी क्या भूक ही मज़दूर की ख़ूराक हो जाएगी क्या

नींद आई न खुला रात का बिस्तर मुझ से

नींद आई न खुला रात का बिस्तर मुझ से गुफ़्तुगू करता रहा चाँद बराबर मुझ से

कभी गोकुल कभी राधा कभी मोहन बन के

कभी गोकुल कभी राधा कभी मोहन बन के मैं ख़यालों में भटकती रही जोगन बन के

दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त

दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते

न बज़्म अपनी न अपना साक़ी न शीशा अपना न जाम अपना

न बज़्म अपनी न अपना साक़ी न शीशा अपना न जाम अपना अगर यही है निज़ाम-ए-हस्ती तो ज़िंदगी को सलाम अपना

सवाल ये है कि आपस में हम मिलें कैसे

सवाल ये है कि आपस में हम मिलें कैसे हमेशा साथ तो चलते हैं दो किनारे भी !

अपनी मंज़िल पे पहुँचना भी खड़े रहना भी

अपनी मंज़िल पे पहुँचना भी खड़े रहना भी कितना मुश्किल है बड़े हो के बड़े रहना भी

ग़म-ए-ज़माना ने मजबूर कर दिया वर्ना

ग़म-ए-ज़माना ने मजबूर कर दिया वर्ना ये आरज़ू थी कि बस तेरी आरज़ू करते

मेरा भी और कोई नहीं है तिरे सिवा

मेरा भी और कोई नहीं है तिरे सिवा ऐ शाम-ए-ग़म तुझे मैं कहाँ छोड़ जाऊँगा

रूह सिसकती, बंजर आँखें, सूना घर और पत्थर दिल

रूह सिसकती, बंजर आँखें, सूना घर और पत्थर दिल तेरी नफरत- ले गयी क्या कुछ, दे गयी क्या कुछ!

दूर तक राह में अब कोई नहीं, कोई नहीं,

दूर तक राह में अब कोई नहीं, कोई नहीं, कब तलक बिछड़े हुए लोगों का रस्ता देखुँ l

मुमकिन है कि तेरी यादों से पीछा मेरा छूट जाये ,

मुमकिन है कि तेरी यादों से पीछा मेरा छूट जाये , बस शर्त इतनी है कि दिल से धडकनों का ताल्लुक टूट जाये ... !!

बस एक ख्वाहिश है कि तुझे खुद से ज्यादा चाहूं ,

बस एक ख्वाहिश है कि तुझे खुद से ज्यादा चाहूं ,   मैं रहूं ना रहूं .. तुझे मेरी वफा याद रहे ... !!

आह निकली ही थी मेरे होंटों से कि वो आ पहुंचे ,

आह निकली ही थी मेरे होंटों से कि वो आ पहुंचे , देख ली मेरी दुआओं ने असर की सूरत .... !!

अपने होने का कुछ एहसास न होने से हुआ

अपने होने का कुछ एहसास न होने से हुआ ख़ुद से मिलना मेरा एक शख़्स के खोने से हुआ

फ़ैसला ये तो बहर-हाल तुझे करना है

फ़ैसला ये तो बहर - हाल तुझे करना है ज़ेहन के साथ सुलगना है कि जज़्बात के साथ

भूले हैं रफ़्ता रफ़्ता उन्हें मुद्दतों में हम

भूले हैं रफ़्ता रफ़्ता उन्हें मुद्दतों में हम क़िस्तों में ख़ुद - कुशी का मज़ा हमसे पूछिए

फिर भी तू इंतज़ार कर शायद

फिर उसी राहगुज़र पर शायद हम कभी मिल सकें मगर शायद जिनके हम मुंतज़िर रहे उनको मिल गए और हमसफ़र शायद जान पहचान से भी क्या होगा फिर भी ऐ दोस्त ग़ौर कर ! शायद अजनबीयत की धुंध छँट जाए चमक उठ्ठे तिरी नज़र शायद ज़िन्दगी भर लहू रुलाएगी यादे - याराने – बेख़बर शायद जो भी बिछड़े वो कब मिले हैं ‘ फ़राज़ ’ फिर भी तू इंतज़ार कर शायद

ए वाइज़-ए-नादाँ करता है

ए वाइज़-ए-नादाँ करता है तू एक कयामत का चर्चा,  यहाँ रोज़ निगाहें मिलती हैं यहाँ रोज़ क़यामत होती है

किती लुटावे डोळ्यांनी

किती लुटावे डोळ्यांनी दिवसांचे निळेपण ; काच रंगेना मनाची , उमटेना निळी धून ; किती खोल घ्यावे श्वास पिण्या काळोखाचे विष ; रिते जरी लाख डोह नाही जहराचा होष ; नाही बासरीची धून , नाही कशी विषबाधा ; अशी कशी ही पापीन …. हसे मीरा , हसे राधा . : किती लुटावे डोळ्यांनी : मृगजळ : इंदिरा संत