महरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ के फिर आ भी न सकूँ
ज़ौफ़ में ताना-ए-अग़यार का शिक्वा क्या है
बात कुछ सर तो नहीं है के उठा भी न सकूँ
ज़हर मिलता ही नहीं मुझको सितमगर वर्ना
क्या क़सम है तेरे मिलने की के खा भी न सकूँ
मैं गया वक़्त नहीं हूँ के फिर आ भी न सकूँ
ज़ौफ़ में ताना-ए-अग़यार का शिक्वा क्या है
बात कुछ सर तो नहीं है के उठा भी न सकूँ
ज़हर मिलता ही नहीं मुझको सितमगर वर्ना
क्या क़सम है तेरे मिलने की के खा भी न सकूँ
टिप्पण्या
टिप्पणी पोस्ट करा